वक़्त की कब्र में सोईं हुई कुछ यादें हैं,
आह से रंगे हुए ख्वाबों की चादर में सिमटी रहती हैं जो|
धुंध के पर्दों के पीछे से झाँका करती हैं जो
कुछ यादें ऐसी भी हैं|
कुछ नींद में मिलती हैं मुझसे
कुछ आँखें चुराया करती हैं|
कुछ यादें ऐसी भी हैं जो हंसती हैं मुझ पर,
कई आंसू का कतरा बन कर गालों को चूमा करती हैं|
कुछ बेबस आँखों से देखती हैं मुझको,
काँधे पर सर रख कर सिसकती भी हैं|
क्यों रूठी हुई यादों में मिलते हो तुम?
क्या सब यादों का हिस्सा हो तुम?
Nice touching poem.